वो अपनी उम्र को पहले पिरो लेता है डोरी में
फिर उस के बा'द गिनती उम्र की दिन रात करता है
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बे-सदा दम-ब-ख़ुद फ़ज़ा से डर
चलो माना हमीं बे-कारवाँ हैं
रेत पर छोड़ गया नक़्श हज़ारों अपने
या रब तिरी रहमत का तलबगार है ये भी
धार सी ताज़ा लहू की शबनम-अफ़्शानी में है
अंधी काली रात का धब्बा
कितनी बार बुलाया उस को
तुम्हें ख़बर भी न मिली और हम शिकस्ता-हाल
थी नींद मेरी मगर उस में ख़्वाब उस का था
वो परिंदा है कहाँ शब को चहकने वाला
ऐसे बढ़े कि मंज़िलें रस्ते में बिछ गईं
उम्र की इस नाव का चलना भी क्या रुकना भी क्या