अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
निरा बुरा नहीं ये शग़्ल कुछ भला भी है
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सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के
तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
नहीं मा'लूम अब की साल मय-ख़ाने पे क्या गुज़रा
हक़ मुझे बातिल-आशना न करे
चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है
उम्र आख़िर है जुनूँ कर लूँ बहाराँ फिर कहाँ
मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ
चश्म-ए-तर पर गर नहीं करता हवा पर रहम कर
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
ख़ल्वत हो और शराब हो माशूक़ सामने
उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ