उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
नाला मशहूर ग़लत है कि असर करता है
Habib Jalib
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शहर में था न तिरे हुस्न का ये शोर कभू
इस क़दर ग़र्क़ लहू में ये दिल-ए-ज़ार न था
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
चला आँखों से जब कश्ती में वो महबूब जाता है
हक़ मुझे बातिल-आश्ना न करे
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
यार कब दिल की जराहत पे नज़र करता है
सौ सौ हैं इल्तिफ़ात तग़ाफ़ुल में यार के
अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद