हक़ मुझे बातिल-आश्ना न करे
मैं बुतों से फिरूँ ख़ुदा न करे
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ये वो आँसू हैं जिन से ज़ोहरा आतिशनाक हो जावे
सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
पड़ गई दिल में तिरे तशरीफ़ फ़रमाने में धूम
शहर में था न तिरे हुस्न का ये शोर कभू
अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
हक़ मुझे बातिल-आशना न करे
चश्म-ए-तर पर गर नहीं करता हवा पर रहम कर