सरीर-ए-सल्तनत से आस्तान-ए-यार बेहतर था
हमें ज़िल्ल-ए-हुमा से साया-ए-दीवार बेहतर था
Javed Akhtar
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क्या बदन होगा कि जिस के खोलते जामे का बंद
उम्र फ़रियाद में बर्बाद गई कुछ न हुआ
तसव्वुर उस दहान-ए-तंग का रुख़्सत नहीं देता
बहार आई है क्या क्या चाक जैब-ए-पैरहन करते
अगरचे इश्क़ में आफ़त है और बला भी है
इस अश्क ओ आह में सौदा बिगड़ न जाए कहीं
पड़ गई दिल में तिरे तशरीफ़ फ़रमाने में धूम
हक़ मुझे बातिल-आशना न करे
कार-ए-दीं उस बुत के हाथों हाए अबतर हो गया
उम्र आख़िर है जुनूँ कर लूँ बहाराँ फिर कहाँ
मिस्र में हुस्न की वो गर्मी-ए-बाज़ार कहाँ