एक साया सा फ़ड़फ़ड़ाता है
कोई शय रौशनी से गुज़री है
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कैसे हों ख़्वाब आँख में कैसा ख़याल दिल में हो
किसी ख़सारे के सौदे में हाथ आया था
जाती थी कोई राह अकेली किसी जानिब
आते रहते हैं फ़लक से भी इशारे कुछ न कुछ
ये कमरा और ये गर्द-ओ-ग़ुबार उस का है
कैसा चेहरा है रात की तफ़्सील
जो चला गया सो चला गया जो है पास उस का ख़याल रख
हमें सैराब रक्खा है ख़ुदा का शुक्र है उस ने
वक़्त बस रेंगता है उम्र के साथ
किसी कशिश के किसी सिलसिले का होना था
हमें भी तजरबा है बे-घरी का छत न होने का
इक दिल में था इक सामने दरिया उसे कहना