हमें भी तजरबा है बे-घरी का छत न होने का
दरिंदे, बिजलियाँ, काली घटाएँ शोर करती हैं
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किसी ख़सारे के सौदे में हाथ आया था
अभी गुज़रे दिनों की कुछ सदाएँ शोर करती हैं
मुझ को उतार हर्फ़ में जान-ए-ग़ज़ल बना मुझे
किसी कशिश के किसी सिलसिले का होना था
वक़्त बस रेंगता है उम्र के साथ
हमें सैराब रक्खा है ख़ुदा का शुक्र है उस ने
ख़ुद अपना साथ भी चुभने लगा था
एक साया सा फ़ड़फ़ड़ाता है
कैसा चेहरा है रात की तफ़्सील
किस की आँखों को नींद चुभती है
लम्स-ए-तिश्ना-लबी से गुज़री है