कैसा चेहरा है रात की तफ़्सील
कौन जल कर बुझा है उम्र के साथ
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Gulzar
Habib Jalib
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Ahmad Faraz
Allama Iqbal
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ये कमरा और ये गर्द-ओ-ग़ुबार उस का है
किसी के साथ किया निस्बत हुई थी
वक़्त बस रेंगता है उम्र के साथ
जाती थी कोई राह अकेली किसी जानिब
मुझ को उतार हर्फ़ में जान-ए-ग़ज़ल बना मुझे
आते रहते हैं फ़लक से भी इशारे कुछ न कुछ
अभी गुज़रे दिनों की कुछ सदाएँ शोर करती हैं
लम्स-ए-तिश्ना-लबी से गुज़री है
ख़ुद अपना साथ भी चुभने लगा था
इक दिल में था इक सामने दरिया उसे कहना
अभी से अच्छा हुआ रात सो गई वर्ना