ये शोर-ओ-शर तो पहले दिन से आदम-ज़ाद में है
हमारे शहर में आने की सूरत चाहती हैं
ये दर-ओ-दीवार पर बे-नाम से चुप-चाप साए
पेड़ों की घनी छाँव और चैत की हिद्दत थी
कातता हूँ रात-भर अपने लहू की धार को
किस का चेहरा ढूँडा धूप और छाँव में
बे-सबात सुब्ह शाम और मिरा वजूद
वो सानेहा हुआ था कि बस दिल दहल गए!
इन लबों से अब हमारे लफ़्ज़ रुख़्सत चाहते हैं
नदी किनारे बैठे रहना अच्छा है