मैं अपनी ज़ात की तन्हाई में मुक़य्यद था
फिर इस चटान में इक फूल ने शिगाफ़ किया
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वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
क्यूँ खुल गए लोगों पे मिरी ज़ात के असरार
कब बार-ए-तबस्सुम मिरे होंटों से उठेगा
जीवन को दुख दुख को आग और आग को पानी कहते
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
हो जाएगी जब तुम से शनासाई ज़रा और
ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और
वो मेरे हाल पे रोया भी मुस्कुराया भी
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
अजब तलाश-ए-मुसलसल का इख़्तिताम हुआ
न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी