बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
मैं अपने अंदर की रौशनी से डरा हुआ हूँ
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ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
हमारी मुस्कुराहट पर न जाना
हो जाएगी जब तुम से शनासाई ज़रा और
तुम्हारे नाम के नीचे खिंची हुई है लकीर
अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'
याद है 'आनिस' पहले तुम ख़ुद बिखरे थे
अजब तलाश-ए-मुसलसल का इख़्तिताम हुआ
न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों
अजब अंदाज़ से ये घर गिरा है
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें