अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
ख़ुद मेरी कहानी भी सुनाएगा कोई और
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मुमकिन है कि सदियों भी नज़र आए न सूरज
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
था इंतिज़ार मनाएँगे मिल के दीवाली
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
बिखर के फूल फ़ज़ाओं में बास छोड़ गया
न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
गया था माँगने ख़ुशबू मैं फूल से लेकिन
ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
ये और बात कि रंग-ए-बहार कम होगा
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
हज़ारों क़ुमक़ुमों से जगमगाता है ये घर लेकिन
उतारा दिल के वरक़ पर तो कितना पछताया