उतारा दिल के वरक़ पर तो कितना पछताया
वो इंतिसाब जो पहले बस इक किताब पे था
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तुम्हारे नाम के नीचे खिंची हुई है लकीर
बाहर भी अब अंदर जैसा सन्नाटा है
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
अजब तलाश-ए-मुसलसल का इख़्तिताम हुआ
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
गूँजता है बदन में सन्नाटा
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
हैरत से जो यूँ मेरी तरफ़ देख रहे हो
इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
हमारी मुस्कुराहट पर न जाना
अजब अंदाज़ से ये घर गिरा है