गूँजता है बदन में सन्नाटा
कोई ख़ाली मकान हो जैसे
Javed Akhtar
Parveen Shakir
Anwar Masood
Faiz Ahmad Faiz
Rahat Indori
Allama Iqbal
Mohsin Naqvi
Ahmad Faraz
Gulzar
Mir Taqi Mir
Habib Jalib
Jaun Eliya
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अजब अंदाज़ से ये घर गिरा है
आज ज़रा सी देर को अपने अंदर झाँक कर देखा था
बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों
मिलन की साअ'त को इस तरह से अमर किया है
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
क्यूँ खुल गए लोगों पे मिरी ज़ात के असरार
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
बाहर भी अब अंदर जैसा सन्नाटा है
इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
गहरी सोचें लम्बे दिन और छोटी रातें