हैरत से जो यूँ मेरी तरफ़ देख रहे हो
लगता है कभी तुम ने समुंदर नहीं देखा
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अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और
गहरी सोचें लम्बे दिन और छोटी रातें
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
मैं अपनी ज़ात की तन्हाई में मुक़य्यद था
गूँजता है बदन में सन्नाटा
जीवन को दुख दुख को आग और आग को पानी कहते
वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
तुम्हारे नाम के नीचे खिंची हुई है लकीर
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'