इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
कुछ देर को बजने दो ये शहनाई ज़रा और
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क्यूँ खुल गए लोगों पे मिरी ज़ात के असरार
ये और बात कि रंग-ए-बहार कम होगा
ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और
न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
कब बार-ए-तबस्सुम मिरे होंटों से उठेगा
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
मिलन की साअ'त को इस तरह से अमर किया है