न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
बदन थका भी नहीं और सफ़र तमाम हुआ
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इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
मिलन की साअ'त को इस तरह से अमर किया है
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों
दरकार तहफ़्फ़ुज़ है प साँस भी लेना है
आख़िर को रूह तोड़ ही देगी हिसार-ए-जिस्म
हो जाएगी जब तुम से शनासाई ज़रा और
बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
गूँजता है बदन में सन्नाटा
मेरे अपने अंदर एक भँवर था जिस में
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें