था इंतिज़ार मनाएँगे मिल के दीवाली
न तुम ही लौट के आए न वक़्त-ए-शाम हुआ
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इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
मिलन की साअ'त को इस तरह से अमर किया है
तुम्हारे नाम के नीचे खिंची हुई है लकीर
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
जीवन को दुख दुख को आग और आग को पानी कहते
हो जाएगी जब तुम से शनासाई ज़रा और
न जाने बाहर भी कितने आसेब मुंतज़िर हों
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है