आख़िर को रूह तोड़ ही देगी हिसार-ए-जिस्म
कब तक असीर ख़ुशबू रहेगी गुलाब में
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अजब अंदाज़ से ये घर गिरा है
हो जाएगी जब तुम से शनासाई ज़रा और
अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'
इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
क्यूँ खुल गए लोगों पे मिरी ज़ात के असरार
दरकार तहफ़्फ़ुज़ है प साँस भी लेना है
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
बाहर भी अब अंदर जैसा सन्नाटा है
तू मेरा है
ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और
मैं अपनी ज़ात की तन्हाई में मुक़य्यद था
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए