मेरे अपने अंदर एक भँवर था जिस में
मेरा सब कुछ साथ ही मेरे डूब गया है
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कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
एक नज़्म
अजब तलाश-ए-मुसलसल का इख़्तिताम हुआ
ये और बात कि रंग-ए-बहार कम होगा
गूँजता है बदन में सन्नाटा
जीवन को दुख दुख को आग और आग को पानी कहते
गहरी सोचें लम्बे दिन और छोटी रातें
ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
कब बार-ए-तबस्सुम मिरे होंटों से उठेगा
इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
हज़ारों क़ुमक़ुमों से जगमगाता है ये घर लेकिन