मुमकिन है कि सदियों भी नज़र आए न सूरज
इस बार अंधेरा मिरे अंदर से उठा है
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बाहर भी अब अंदर जैसा सन्नाटा है
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
कितने ही पेड़ ख़ौफ़-ए-ख़िज़ाँ से उजड़ गए
वो मेरे हाल पे रोया भी मुस्कुराया भी
कब बार-ए-तबस्सुम मिरे होंटों से उठेगा
याद है 'आनिस' पहले तुम ख़ुद बिखरे थे
बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
इक डूबती धड़कन की सदा लोग न सुन लें
गहरी सोचें लम्बे दिन और छोटी रातें
ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
आज ज़रा सी देर को अपने अंदर झाँक कर देखा था