याद है 'आनिस' पहले तुम ख़ुद बिखरे थे
आईने ने तुम से बिखरना सीखा था
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गया था माँगने ख़ुशबू मैं फूल से लेकिन
ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
अंजाम को पहुँचूँगा मैं अंजाम से पहले
वो जो प्यासा लगता था सैलाब-ज़दा था
गए ज़माने की चाप जिन को समझ रहे हो
अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'
इक कर्ब-ए-मुसलसल की सज़ा दें तो किसे दें
मिलन की साअ'त को इस तरह से अमर किया है
न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
बाहर भी अब अंदर जैसा सन्नाटा है
उतारा दिल के वरक़ पर तो कितना पछताया
ये क़र्ज़ तो मेरा है चुकाएगा कोई और