ये इंतिज़ार सहर का था या तुम्हारा था
दिया जलाया भी मैं ने दिया बुझाया भी
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अंदर की दुनिया से रब्त बढ़ाओ 'आनिस'
वो कुछ गहरी सोच में ऐसे डूब गया है
बदन की अंधी गली तो जा-ए-अमान ठहरी
आज ज़रा सी देर को अपने अंदर झाँक कर देखा था
तू मेरा है
बिखर के फूल फ़ज़ाओं में बास छोड़ गया
एक नज़्म
ये और बात कि रंग-ए-बहार कम होगा
जीवन को दुख दुख को आग और आग को पानी कहते
न थी ज़मीन में वुसअत मिरी नज़र जैसी
तुम्हारे नाम के नीचे खिंची हुई है लकीर