आँखों तक आ सकी न कभी आँसुओं की लहर
ये क़ाफ़िला भी नक़्ल-ए-मकानी में खो गया
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हवा-ए-मौसम-ए-गुल से लहू लहू तुम थे
शिकस्ता-ख़्वाब-ओ-शिकस्ता-पा हूँ मुझे दुआओं में याद रखना
वर्ना कोई कब गालियाँ देता है किसी को
परों में शाम ढलती है
सुब्ह की पहली किरन पहली नज़र से पहले
इतना आसाँ नहीं मसनद पे बिठाया गया मैं
कुछ तो अपनी गर्दनें कज हैं हवा के ज़ोर से
कोई मिलता नहीं ये बोझ उठाने के लिए
एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'
आँख पे पट्टी बाँध के मुझ को तन्हा छोड़ दिया है
टूट जाने में खिलौनों की तरह होता है
बहुत बे-कार मौसम है मगर कुछ काम करना है