अभी तो घर में न बैठें कहो बुज़ुर्गों से
अभी तो शहर के बच्चे सलाम करते हैं
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निगाह-ए-अव्वलीं का है तक़ाज़ा देखते रहना
ये मोहब्बत की कहानी नहीं मरती लेकिन
ये देख मिरे नक़्श-ए-कफ़-ए-पा मिरे आगे
पानी आँख में भर कर लाया जा सकता है
जहान-ए-मर्ग-ए-सदा में इक और सिलसिला ख़त्म हो गया है
दर-ए-उफ़ुक़ पे रक़म रौशनी का बाब करें
कोई टकरा के सुबुक-सर भी तो हो सकता है
झिलमिल से क्या रब्त निकालें कश्ती की तक़दीरों का
हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
इल्तिजाएँ कर के माँगी थी मोहब्बत की कसक
खा के सूखी रोटियाँ पानी के साथ
नींदों का एक आलम-ए-असबाब और है