हिज्र को हौसला और वस्ल को फ़ुर्सत दरकार
इक मोहब्बत के लिए एक जवानी कम है
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मुझ से तो दिल भी मोहब्बत में नहीं ख़र्च हुआ
ऐसे तो कोई तर्क सुकूनत नहीं करता
तेरी रूह में सन्नाटा है और मिरी आवाज़ में चुप
सदा-ए-ज़ात के ऊँचे हिसार में गुम है
कोई मिलता नहीं ये बोझ उठाने के लिए
अभी उस की ज़रूरत थी
कुछ तो अपनी गर्दनें कज हैं हवा के ज़ोर से
एक मुश्किल सी बहर-तौर बनी होती है
एक मुद्दत से मिरी माँ नहीं सोई 'ताबिश'
चाँद को तालाब मुझ को ख़्वाब वापस कर दिया
पस-ए-ग़ुबार भी उड़ता ग़ुबार अपना था
ये तो नहीं फ़रहाद से यारी नहीं रखते