हुजूम-ए-हश्र में खोलूँगा अद्ल का दफ़्तर
अभी तो फ़ैसले तहरीर कर रहा हूँ मैं
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दरोग़ के इम्तिहाँ-कदे में सदा यही कारोबार होगा
ज़बान-ए-होश से ये कुफ़्र सरज़द हो नहीं सकता
छोड़ा नहीं ख़ुदी को दौड़े ख़ुदा के पीछे
हर दुश्मन-ए-वफ़ा मुझे महबूब हो गया
या दुपट्टा न लीजिए सर पर
दिन गुज़र जाएँगे सरकार कोई बात नहीं
मय-ख़ाना-ए-हस्ती में अक्सर हम अपना ठिकाना भूल गए
अरे मय-गुसारो सवेरे सवेरे
ज़िंदगी ज़ोर है रवानी का
ये क्या कि तुम ने जफ़ा से भी हाथ खींच लिया
तबाह हो के हक़ाएक़ के खुरदुरे-पन से
देख कर दिल-कशी ज़माने की