मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
बुरा समझ ले मगर दूसरों से अच्छा हूँ
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फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
इन काली सड़कों प अक्सर ध्यान आया
वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में
वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
सफ़ेद-पोश दरिंदों ने गुल खिलाए थे
दश्त-ए-अफ़्कार में सूखे हुए फूलों से मिले
पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
देख रहा था जाते जाते हसरत से
अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी