मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
एक पत्थर ने रवाँ धार किया है मुझ को
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उस ने चलते चलते लफ़्ज़ों का ज़हराब
पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
इन काली सड़कों प अक्सर ध्यान आया
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को
फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
अपनी ही ज़ात के सहरा में सुलगते हुए लोग
वो शख़्स जिस ने ख़ुद अपना लहू पिया होगा
फटे पुराने बदन से किसे ख़रीद सकूँ
देख रहा था जाते जाते हसरत से
सफ़ेद-पोश दरिंदों ने गुल खिलाए थे
अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी
पंछियों के रू-ब-रू क्या ज़िक्र-ए-नादारी करूँ