पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
मौजों की तरह चारों तरफ़ फैल गया हूँ
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आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में
इन काली सड़कों प अक्सर ध्यान आया
पंछियों के रू-ब-रू क्या ज़िक्र-ए-नादारी करूँ
मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
चट्टान के साए में खड़ा सोच रहा हूँ
देख रहा था जाते जाते हसरत से
फटे पुराने बदन से किसे ख़रीद सकूँ
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को