फटे पुराने बदन से किसे ख़रीद सकूँ
सजे हैं काँच के पैकर बड़ी दुकानों में
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वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
चट्टान के साए में खड़ा सोच रहा हूँ
फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे
पंछियों के रू-ब-रू क्या ज़िक्र-ए-नादारी करूँ
मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को
सफ़ेद-पोश दरिंदों ने गुल खिलाए थे
पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में