आवाज़ दे रहा है अकेला ख़ुदा मुझे
मैं उस को सुन रहा हूँ हवाओं के कान से
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अगर हो ख़ौफ़-ज़दा ताक़त-ए-बयाँ कैसी
फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
मैं तेरी चाह में झूटा हवस में सच्चा हूँ
पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
अपनी ही ज़ात के सहरा में सुलगते हुए लोग
वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में
देख रहा था जाते जाते हसरत से
वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी