देख रहा था जाते जाते हसरत से
सोच रहा होगा मैं उस को रोकूँगा
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वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
सफ़ेद-पोश दरिंदों ने गुल खिलाए थे
वो शख़्स जिस ने ख़ुद अपना लहू पिया होगा
वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में
फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
पंछियों के रू-ब-रू क्या ज़िक्र-ए-नादारी करूँ
चट्टान के साए में खड़ा सोच रहा हूँ
दश्त-ए-अफ़्कार में सूखे हुए फूलों से मिले
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
उस ने चलते चलते लफ़्ज़ों का ज़हराब
इन काली सड़कों प अक्सर ध्यान आया
टूट कर देर तलक प्यार किया है मुझ को