वो अजनबी तिरी बाँहों में जो रहा शब भर
किसे ख़बर कि वो दिन भर कहाँ रहा होगा
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उस ने चलते चलते लफ़्ज़ों का ज़हराब
इन काली सड़कों प अक्सर ध्यान आया
चट्टान के साए में खड़ा सोच रहा हूँ
पंछियों के रू-ब-रू क्या ज़िक्र-ए-नादारी करूँ
सफ़ेद-पोश दरिंदों ने गुल खिलाए थे
मैं भी तालाब का ठहरा हुआ पानी था कभी
पत्थर ने पुकारा था मैं आवाज़ की धुन में
फिर इक नए सफ़र पे चला हूँ मकान से
देख रहा था जाते जाते हसरत से
दश्त-ए-अफ़्कार में सूखे हुए फूलों से मिले
वो सो रहा है ख़ुदा दूर आसमानों में