शहर ये सायों का है इस में बनी-आदम कहाँ
अब किसी सूरत यहाँ इंसान होना चाहिए
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Habib Jalib
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फटा हुआ जो गरेबाँ दिखाई देता है
तिरे हाथों में है तिरी क़िस्मत
अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं
जाने किस सम्त को भटका साया
यज़ीद-ए-वक़्त ने अब के लगाई है क़दग़न
सर पर गिरे मकान का मलबा ही रख लिया
न घर सुकून-कदा है न कारख़ाना-ए-इश्क़
जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत
तेरी दुनिया की कज-अदाई से
मैं बारिशों में बहुत भीगता रहा 'आबिद'
हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप