हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप
और ये रात अपनी चादर है
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शहर ये सायों का है इस में बनी-आदम कहाँ
सब अपने अपने तरीक़े से भीक माँगते हैं
जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत
अब क़फ़स और गुलिस्ताँ में कोई फ़र्क़ नहीं
मैं बारिशों में बहुत भीगता रहा 'आबिद'
मगर ये तीरगी जाने का नाम लेती नहीं
तेरी दुनिया की कज-अदाई से
तिरे हाथों में है तिरी क़िस्मत
इस ए'तिबार पे काटी है हम ने उम्र-ए-अज़ीज़
यज़ीद-ए-वक़्त ने अब के लगाई है क़दग़न
जाने किस सम्त को भटका साया