हम किसी सुल्ताँ के ताबे नहीं 'आबिद-वदूद'
हम वो कहते हैं जो अपने दिल पे है गुज़री हुई
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अपने अंदर भी हम-नवाई नहीं
हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप
मगर ये तीरगी जाने का नाम लेती नहीं
सर पर गिरे मकान का मलबा ही रख लिया
हाथ में माहताब हो जैसे
न घर सुकून-कदा है न कारख़ाना-ए-इश्क़
यज़ीद-ए-वक़्त ने अब के लगाई है क़दग़न
शहर ये सायों का है इस में बनी-आदम कहाँ
अब क़फ़स और गुलिस्ताँ में कोई फ़र्क़ नहीं
सब अपने अपने तरीक़े से भीक माँगते हैं
तिरे हाथों में है तिरी क़िस्मत
इस ए'तिबार पे काटी है हम ने उम्र-ए-अज़ीज़