इस ए'तिबार पे काटी है हम ने उम्र-ए-अज़ीज़
सहर का वक़्त उजाले भी साथ लाएगा
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हाथ में माहताब हो जैसे
जब से दरिया में है तुग़्यानी बहुत
मैं बारिशों में बहुत भीगता रहा 'आबिद'
शहर ये सायों का है इस में बनी-आदम कहाँ
जाने किस सम्त को भटका साया
फटा हुआ जो गरेबाँ दिखाई देता है
हम फ़क़ीरों का पैरहन है धूप
मगर ये तीरगी जाने का नाम लेती नहीं
यज़ीद-ए-वक़्त ने अब के लगाई है क़दग़न
कोई मंज़र भी नहीं अच्छा लगा
तेरी दुनिया की कज-अदाई से