फ़िराक़ ओ वस्ल से हट कर कोई रिश्ता हमारा है
कि उस को छोड़ पाता हूँ न उस को थाम रखता हूँ
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राह दुश्वार भी है बे-सर-ओ-सामानी भी
हम ने रक्खा था जिसे अपनी कहानी में कहीं
जो भी यकजा है बिखरता नज़र आता है मुझे
हम कि इक भेस लिए फिरते हैं
मुझे डर लगता है
तुम जो आते हो
मिट्टी से एक मुकालिमा
क्या जानिए क्या है हद-ए-इदराक से आगे
पस-मंज़र की आवाज़
तू कहीं बैठ और हुक्म चला
कि जैसे कुंज-ए-चमन से सबा निकलती है
कहीं टूटते हैं