मालूम अब हुआ है आ हिन्द बीच हम कूँ
लगते हैं दिल-बराँ के लब रंग-ए-पाँ से क्या ख़ूब
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इक अर्ज़ सब सीं छुप कर करनी है हम कूँ तुम सीं
जब कि ऐसा हो गंदुमी माशूक़
कहें क्या तुम सूँ बे-दर्द लोगो किसी से जी का मरम न पाया
ग़म से हम सूख जब हुए लकड़ी
चंचलाहट में तू ममोला है
रता है अबरुवाँ पर हाथ अक्सर लावबाली का
जो कि बिस्मिल्लाह कर खाए तआम
शेर को मज़मून सेती क़द्र हो है 'आबरू'
देखो तो जान तुम कूँ मनाते हैं कब सेती
न पावे चाल तेरे की पियारे ये ढलक दरिया
जलता है अब तलक तिरी ज़ुल्फ़ों के रश्क से
तुम्हारे लोग कहते हैं कमर है