मेहराब-ए-अबरुवाँ कूँ वसमा हुआ है ज़ेवर
क्यूँ कर कहें न उन कूँ अब ज़ीनतुल-मसाजिद
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हमारे साँवले कूँ देख कर जी में जली जामुन
कमाँ हुआ है क़द अबरू के गोशा-गीरों का
तुम्हारे लोग कहते हैं कमर है
दिखाई ख़्वाब में दी थी टुक इक मुँह की झलक हम कूँ
दूर ख़ामोश बैठा रहता हूँ
नालाँ हुआ है जल कर सीने में मन हमारा
ये तिरी दुश्नाम के पीछे हँसी गुलज़ार सी
मिल गया था बाग़ में माशूक़ इक नक-दार सा
उस ज़ुल्फ़-ए-जाँ कूँ सनम की बला कहो
बहार आई गली की तरह दिल खोल
इश्क़ का तीर दिल में लागा है
अगर देखे तुम्हारी ज़ुल्फ़ ले डस