कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला
सूरज मिरी निगाह की सच्चाइयों में था
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दीप था या तारा क्या जाने
मैं साज़ ढूँडती रही
हर गाम सँभल सँभल रही थी
रोज़-ओ-शब की कोई सूरत तो बना कर रख्खूँ
क्या जानिए किस बात पे मग़रूर रही हूँ
मिज़ाज-ओ-मर्तबा-ए-चश्म-ए-नम को पहचाने
ख़ामुशी से हुई फ़ुग़ाँ से हुई
गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
होंटों पे कभी उन के मिरा नाम ही आए
काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या
साज़-ए-सुख़न बहाना है
गुल पर क्या कुछ बीत गई है