ख़ामुशी से हुई फ़ुग़ाँ से हुई
इब्तिदा रंज की कहाँ से हुई
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निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ
वैसे ही ख़याल आ गया है
क्यूँ
एक आईना रू-ब-रू है अभी
मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ
आलम ही और था जो शनासाइयों में था
आँखों में रूप सुब्ह की पहली किरन सा है
कहते हैं कि अब हम से ख़ता-कार बहुत हैं
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
आशोब-ए-आगही
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
हिस नहीं तड़प नहीं बाब-ए-अता भी क्यूँ खुले