अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
हमें आता है पतझड़ के दिनों गुल-बार हो जाना
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बोलते हैं दिलों के सन्नाटे
हमारे शहर के लोगों का अब अहवाल इतना है
दीप था या तारा क्या जाने
वो लम्हा जो मेरा था
घर का रस्ता भी मिला था शायद
बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी
गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
आ देख कि मेरे आँसुओं में
वर्ना इंसान मर गया होता
कोई संग-ए-रह भी चमक उठा तो सितारा-ए-सहरी कहा
गुल पर क्या कुछ बीत गई है
आख़िरी टीस आज़माने को