वर्ना इंसान मर गया होता
कोई बे-नाम जुस्तुजू है अभी
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जिस की जानिब 'अदा' नज़र न उठी
ज़बाँ को हुक्म निगाह-ए-करम को पहचाने
जिस की बातों के फ़साने लिक्खे
तुम जो सियाने हो गुन वाले हो
काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
क्या जानिए किस बात पे मग़रूर रही हूँ
अगर सच इतना ज़ालिम है तो हम से झूट ही बोलो
मुझे रंग-ए-ख़्वाब से ज़िंदगी का यक़ीं मिला
कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला
कहते हैं कि अब हम से ख़ता-कार बहुत हैं