आ देख कि मेरे आँसुओं में
ये किस का जमाल आ गया है
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साज़-ए-सुख़न बहाना है
न बाम-ओ-दश्त न दरिया न कोहसार मिले
क्यूँ
आलम ही और था जो शनासाइयों में था
एक आईना रू-ब-रू है अभी
काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
कहते हैं कि अब हम से ख़ता-कार बहुत हैं
निगाह ओट रहूँ कासा-ए-ख़बर में रहूँ
मैं आँधियों के पास तलाश-ए-सबा में हूँ
तुम जो सियाने हो गुन वाले हो