अभी सहीफ़ा-ए-जाँ पर रक़म भी क्या होगा
अभी तो याद भी बे-साख़्ता नहीं आई
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वर्ना इंसान मर गया होता
आलम ही और था जो शनासाइयों में था
जिस की जानिब 'अदा' नज़र न उठी
आशोब-ए-आगही
ख़लिश-ए-तीर-ए-बे-पनाह गई
ख़ामुशी से हुई फ़ुग़ाँ से हुई
कटता कहाँ तवील था रातों का सिलसिला
जिस की बातों के फ़साने लिक्खे
दिल के वीराने में घूमे तो भटक जाओगे
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
वही ना-सबूरी-ए-आरज़ू वही नक़्श-ए-पा वही जादा है
एक आईना रू-ब-रू है अभी