कोई ताइर इधर नहीं आता
कैसी तक़्सीर इस मकाँ से हुई
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आगे हरीम-ए-ग़म से कोई रास्ता न था
ख़लिश-ए-तीर-ए-बे-पनाह गई
अचानक दिलरुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना
शायद अभी है राख में कोई शरार भी
आलम ही और था जो शनासाइयों में था
काँटा सा जो चुभा था वो लौ दे गया है क्या
ढलके ढलके आँसू ढलके
मिज़ाज-ओ-मर्तबा-ए-चश्म-ए-नम को पहचाने
एक आईना रू-ब-रू है अभी
वही ना-सबूरी-ए-आरज़ू वही नक़्श-ए-पा वही जादा है
गुलों सी गुफ़्तुगू करें क़यामतों के दरमियाँ
तौफ़ीक़ से कब कोई सरोकार चले है