लोग बे-मेहर न होते होंगे
वहम सा दिल को हुआ था शायद
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जब दिल की रहगुज़र पे तिरा नक़्श-ए-पा न था
जो चराग़ सारे बुझा चुके उन्हें इंतिज़ार कहाँ रहा
क्यूँ
गुल पर क्या कुछ बीत गई है
मिज़ाज-ओ-मर्तबा-ए-चश्म-ए-नम को पहचाने
साज़-ए-सुख़न बहाना है
बस एक बार मनाया था जश्न-ए-महरूमी
अचानक दिलरुबा मौसम का दिल-आज़ार हो जाना
एक आईना रू-ब-रू है अभी
होंटों पे कभी उन के मिरा नाम ही आए
आलम ही और था जो शनासाइयों में था
आशोब-ए-आगही