बदल रहे हैं ज़माने के रंग क्या क्या देख
नज़र उठा कि ये दुनिया है देखने के लिए
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सो अपने हाथ से दीं भी गया है दुनिया भी
पते की बात भी मुँह से निकल ही जाती है
कुछ रब्त-ए-ख़ास अस्ल का ज़ाहिर के साथ है
अस्ल हालत का बयाँ ज़ाहिर के साँचों में नहीं
वो सर से पाँव तक है ग़ज़ब से भरा हुआ
वो शोर होता है ख़्वाबों में 'आफ़्ताब' 'हुसैन'
वो यूँ मिला था कि जैसे कभी न बिछड़ेगा
अभी दिलों की तनाबों में सख़्तियाँ हैं बहुत
वक़्त की वहशी हवा क्या क्या उड़ा कर ले गई
हर एक गाम उलझता हूँ अपने आप से मैं
अज़ाब-ए-बर्क़-ओ-बाराँ था अँधेरी रात थी